Sunday, May 15, 2011

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतशार-सा है ।

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतशार-सा है ।

जहाँ को अपनी तबाही का इंतज़ार-सा है ।



मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़जा


कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार-सा है ।



मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ


कि आज दामने-यज़्दाँ
 भी तार-तार-सा है ।


सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए


उसी पे ख़ालिके-कोनैन
 शर्मसार-सा है ।


तमाम जिस्म है बेदार
, फ़िक्र ख़ाबीदा

दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार-सा है ।



सब अपने पाँव पे रख-रखके पाँव चलते हैं


ख़ुद अपने दो
 पे हर आदमी सवार-सा है ।


जिसे पुकारिए मिलता है इक खंडहर-से जवाब


जिसे भी देखिए माज़ी
 का इश्तहार-सा है ।


हुई तो कैसे बियाबाँ
 में आके शाम हुई

कि जो मज़ार यहाँ है मेरा मज़ार-सा है ।



कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले


उस इन्क़लाब का, जो आज तक उधार-सा है ।

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