Wednesday, February 17, 2010

डिप्लोमसी कॉमेडी कथाकथन-2

आज लाफ्टर क्लबमें दो मेहमान आये थे. वे सबको अलग अलग एक्सरसाईज का प्रात्यक्षीक देने लगे. पहले तो उन्होने कुछ योगा का प्रात्यक्षीक बताया. मर्कटासन, हलासन... पता चला की उसमेंसे शवासन लोगोंको बहोत भा गया फिर पवनमुक्तासन सिखाया गया ... कुछ लोगोंने पवनमुक्तासन को उसके नाम के अनुरुप सच्चा ठहराया... मै तो कहता हूं की पवनमुक्तासन के तुरंत बाद अनुलोम विलोम होना चाहिये... ताकी पवनमुक्तासन के बाद अलगसे नाक दबाने की जरुरत ना पडे. अलग अलग प्रकार के योगा का प्रात्यक्षीक देने के बाद उसने एक गलेमे पैर अटकानेवाला प्रकार किया. वह प्रकार करते वक्त वह जोर जोर से चिल्लाने लगा. उसका वह चिल्लाना उस योग का भाग ना होकर उसके पैर गर्दनमे सचमुछ अटक गये थे ... यह सबको उसके साथीदार ने पैर गलेसे निकालनेके लिए उसकी मदत कि तब पता चला. सब प्रात्यक्षिक करते वक्त बिचबिचमें वे लोग बडी उत्सुकतासे पार्कके गेटकी तरफ देख रहे थे. शायद किसीकी राह देख रहे हो. वह ऐसा क्यो देख रहे यह हमें बादमें पता चला. फिर उन्होने कुछ स्कुल की पीटी जैसे वार्मीग एक्सरसाईजेस लिए. दाया हात उपर करो... उनका इन्स्ट्रकशन आया. अब दाया हात कौनसा यह देखनेके लिये मिश्राजीने बाजूवाले कि तरफ देखा. वह उसके बाजूवाले को देख रहा था. वहां पांडेजी खडे थे. उन्होने खाने की ऍक्शन कर दाया हात झट से उपर किया. अब अगर उन्होने बाया हाथ उपर करो ऐसा आदेश दिया तो पांडेजी कौनसी ऍक्शन करेंगे इसकी कल्पना ना करना ही अच्छा है.

वे डेमोस्ट्रेशन वाले बिच बिच मे पार्क के दरवाजे की तरफ क्यों देख रहे थे यह हमें प्रेसवाले आनेके बाद पता चला. अब तो हम एक तरफ रह गए और वे डेमोस्ट्रेशन देने वाले कॅमेरे की तरफ देखकर इन्स्ट्रक्शन देने लगे. अच्छा तो यह उनकी डिप्लोमसी थी. मै फिर डिप्लोमसी के बारे मे सोचने लगा. आज की तारीख मे इस डिप्लोमसी का फैलाव इतनी तेजी से कैसे हो रहा है. मुझे आशंका होने लगी की कही किसी कॉलेज में डिप्लोमा इन डिप्लोमसी ऐसा कोई कोर्स तो नही चलाया जा रहा है?

सोचते सोचते कब एक्सरसाईज खत्म हूवा कुछ पता ही नही चला. मै घर जाने के लिए निकला. फिर मेरे पास वह पहलेवाला साथी आगया. अभीभी वह उस तरक्कीवाली बात पर अटका हूवा था.

"" आज मानवजातने इतनी तरक्की की है फिरभी आप इसे तरक्की नही मानते... आखीर क्यों? उसने पुछा.

""देखो आज आदमी पर ऐसी नौबत आई की वह किसीसे खुलकर हंस नही सकता... और उस हंसी की कमी को पुरा करने के लिये उसे... किसी लाफ्टरक्लबमे.... जाकर पागलोंकी तरह... झूटमूठ हंसने की नौबत आगई है... इसे क्या तुम तरक्की कहोगे... मै तो कहता हूं की इससे बडी कोई अवनती नही है...'' मै आवेशमें बोल गया.

हम पार्कसे बाहर आकर घर जाने के लिए निकले. वह मेरे साथ वाला आदमी गुमसुम था. वह कुछ जादाही सिरीयस हूवा था.

"" अरे जादा सिरीयसली मत लो... मै ऐसेही बोल गया ... बाय द वे तुम्हारी कौनसी बिल्डींग है...''

मैने बात बदलते हूए पुछा. उसने एक बिल्डीग की तरफ इशारा कर कहा. वो वाली... फ्लॅट नं. सी202...

""अच्छा आप उस बिल्डींमे रहते है... मै अक्सर वहां आता जाता रहता हू... कभी आया तो आपके घर जरुर आवूंगा...'' मैने कहा.

"" आईये जरुर आईए...'' उसने कहां और वह एक गलीमे घर जाने के लिए मुडा.

मेरा विचारचक्र फिरसे शुरु हुवा. डिप्लोमसी के बारेमें..

डिप्लोमसी जिसपर बितती है उसको उससे भले ही गीला हो लेकीन डिप्लोमसी एक कला है. इसमें बहोत लंबा सोचना पडता है. अब देखोना अभी जो मेरे साथ था उसको क्या मालूम की मै एक एल आय सी एजंट हू... और अभी अभी मैने उसे झांसेमे लेना शुरु किया है. वह इस बातसे बिलकुल बेखबर है की धीरे धीरे दोचार दिनमें मै उससे कमसे कम एक एल आय सी पॉलीसी लेकर ही छोडूंगा.

कोई डिप्लोमसी को कला कहता है तो किसीको उससे गिला होता है. लेकिन ये भी सच है की भगवान ने भी इन्सान के साथ बडी बेखुबीसे डिप्लोमसी निभाई है. क्योंकी भगवान ने किसीको कम तो किसीको जादा दिया. फिरभी जादातर लोग उसे श्रध्दासे याद करते है. भगवान जैसी डिप्लोमसी शायद कोई नही कर पाये. या फिर उसके जैसी डिप्लोमसी करने बादही शायद कुछ इन्सानभी भगवान बन जाते है...

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